सोमवार, जून 29

एडिटोरिअल वाले चीखते है जल्दी काटो ,जल्दी काटो


कहने को तो द्रश्य सम्पादक हूँ मैं ,यानी ख़बरों का पहला दर्शक ,जो ख़बरों को सबसे पहले देखता है ,वो भी बिना किसी ब्लर किये हुए ,पत्रकारिता की बिरादरी से बेहद दूर माने जाने वाले वीडियों एडिटर का दर्द शायद एडिटोरियल वाले नहीं जानते ,और ना ही टेली- प्रोम्प्टर पढने वाले जानते है ,लेकिन खामोशी के साथ अपना दर्द अपने तक सीमित रखने वालों की ज़िन्दगी उस वक्त बदरंग होती है......जब इंसान -इंसान को को मारता है ,और एडिटोरिअल वाले चीखते है जल्दी काटो ,जल्दी काटो विसुअल्स आ गए ,जिस व्यक्ति का हाथ और गला कटा है उस पर ब्लर कर देना ,कितना आसान होता है ,उनके लिए सिर्फ यह कह देना की ब्लर लगा देना ,लेकिन हम जानते है दिल और अपनी भावनाओं को किस तरह दबाया जाता है ,उन के हर चीथड़े {मॉस से सने हुए }पर हम ब्लर लगाते है ,अपनी सवेदनाओ को दबाते है ,फिर बैठ जाते है ,फिर बड़े बड़े lcd tv पर देखते है की सच में एक बार फिर इंसान ने इंसान को मारा है ,फिर दुसरी खबर पर लग जाते है ,कही कोंई लूट पाट,कही कोंई चीख पुकार फिर कोंई बलात्कार ,लड़की के कपडों को किस तरीके से दिखाना है ,उसकी छट पटाहट को किस तरके से दिखाना है ,उसको सिसकियाँ भरते हुए आंसू की दर्द नाक आवाज़ को कितना तेजी से सुनाना है ,,,,,,,,बस यही तो यह हमारी जिंदगी ,हमारी जिंदगी

4 टिप्पणियाँ:

ghughutibasuti ने कहा…

बहुत कठिन काम कर रहे हैं। ऐसे में शायद संवेदनाओं को भुला देना ही बेहतर है।
घुघूती बासू्ती

अबयज़ ख़ान ने कहा…

तुम्हारा दर्द हम ज़रूर समझेंगे।

Aadarsh Rathore ने कहा…

यार तुमने तो अजीब लिखा है दोस्त...
इतना ही बुरा काम है अगर ये तो क्यों नहीं छोड़ देते?
क्यों खुद को कष्ट दे रहे हो...। एडिटोरियल और टेक्निकल दो विभाग हैं... एक चैनल के लिए दोनों की महत्ता समान है औऱ दोनों अंतर्निर्भर हैं। ऐसे में ऐसा क्यों दिखा रहे हो कि इसमें भेद है। कल को एडिटोरियल वाला रोना शुरु कर देगा कि हम मेहनत बहुत करते हैं लेकिन हमारी शक्ल टीवी पर नहीं आती। कमबख्त एंकर हमारा दर्द नहीं समझते। दोस्त, हर व्यवसाय का और हर योग्यता का अपना स्थान होता है। अपना काम सबसे अच्छा होता है।
दुर्भाग्य ये है कि जिन दृश्यों को देखकर आप विचलित होते हैं, उन्हें कैमरामैन और रिपोर्टर तो साक्षात देखते हैं। अब उन्हें तो दर्द से मर ही जाना चाहिए ऐसे में....?
डॉक्टर तो फिर पागल ही हैं जो ऑपरेशन करते हैं। पता नहीं क्या-क्या देखते हैं... सैनिक भी सनकी होते हैं जो युद्ध में भाग लेते हैं.
कमाल है गुरु...

संदीप ने कहा…

डॉक्‍टर के काम में, और बलात्‍कार पीड़ि‍त का चेहरा छिपाने में बहुत अंतर होता है आदर्श साहब... आशीष की व्‍यथा को समझने का प्रयास कीजिए, उनके पास कोई और विकल्‍प होता तो शायद वह छोड़ भी देते (ऐसा मेरा अनुमान है)। यार आप मानो या न मानों यहां जिंदगी सिंगल कॉलम, डबल कॉलम और ब्‍लर, बाइट में सिमट जाती है तमाम संवेदनाओं को कुचलते हुए।