मंगलवार, मई 19

यहाँ लाशों का मंजर क्यों है........


आदर्शों के विचार सिद्धांत कब बन जाते है ,सच में पता नहीं लगता ....इस बार मेरे ब्लॉग में जो लेख मैं प्रकाशित कर रहा हूँ ,वो मेरा नहीं अपितु ndtvkhabar.com से लिया गया है ,जो मेरे गुरु और साथ में आदर्श रहे प्रियदर्शन द्बारा लिखा गया है

पिछले साल 2 अक्टूबर को, यानी महात्मा गांधी की जयंती पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मुताबिक एक और इतिहास बना। अमेरिकी सीनेट ने एटमी करार पर मोहर लगाकर भारत की नाभिकीय अस्पृश्यता ख़त्म की। क्या इस इस इत्तफाक पर हमें हैरान होना चाहिए कि जीवन भर अहिंसा की बात करने वाले और ऊर्जा और उत्पादन के देसी तौर-तरीक़ों पर भरोसा करने वाले महात्मा गांधी को उनके देश ने उनके जन्मदिन की सौगात के रूप में एटमी करार दिया... या हमें उदास होना चाहिए कि किसी की नज़र इस इत्तफाक पर नहीं पड़ी और किसी ने उस विद्रूप पर विचार नहीं किया, जो महात्मा गांधी और एटमी करार को मिलाने से बनता है...?
कहते हैं, कभी अपने एक भाषण में खुद को कुजात गांधीवादी बताने वाले डॉ राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि 21वीं सदी में या तो महात्मा गांधी बचे रहेंगे या परमाणु बम बचा रहेगा। एक ढंग से देखें तो दुनिया भर के परमाणु बम किन्हीं जखीरों में छिपे हुए हैं और किसी को डराने का काम भी नहीं करते। एक दौर में वियतनाम में बुरी तरह अपने हाथ जला लेने वाले अमेरिका को अपने परमाणु बम याद नहीं आए। सोवियत संघ टूट गया और उसको उसके परमाणु बम नहीं बचा सके। चीन की ताकत उसके परमाणु बम से कहीं ज्यादा उसके आर्थिक धमाके से है।
दूसरी तरफ आज की हिंसा और नफरत में महात्मा गांधी की जगह नहीं दिखती। लेकिन सच्चाई यह है कि सांस्कृतिक बहुलता का मुद्दा हो या पर्यावरण की सजगता का, हम महात्मा गांधी की तरफ लौटने को मजबूर हैं। यह धारणा धीरे-धीरे मज़बूत हो रही है कि भोग और लालच की मारी इस दुनिया में न्याय और बराबरी की तरफ लौटने का सबसे भरोसेमंद रास्ता गांधी की गली से होकर जाता है। शायद यह मुहावरा सबसे ज्यादा सार्थक आने वाले दिनों में ही होगा कि मजबूरी का नाम महात्मा गांधी।
लेकिन मामला परमाणु बम या महात्मा गांधी की प्रासंगिकता का नहीं है, एक देश के तौर पर भारत के वर्तमान और भविष्य का है। महात्मा गांधी ने जिस भारत के लिए अंग्रेजों से लड़ाई लड़ी, उसे न परमाणु बम की ज़रूरत थी, न परमाणु ऊर्जा की। गांधी उसे बिल्कुल देसी ज़रूरतों और देसी तकनीक पर केंद्रित एक देश बनाना चाहते थे। यह सच है कि गांधी के सपनों का भारत आज़ादी के बाद से ही बिखरना शुरू हो गया, लेकिन आज उसके भटकाव कहीं ज़्यादा विचलित करने वाले हैं। ऐसा लग रहा है, जैसे इस दौर का भारत अपनी सारी राजनीतिक-वैचारिक बहसें पीछे छोड़ चुका है और उसके सामने सिर्फ आर्थिक महाशक्ति बनने का लक्ष्य है। जो बहुत बड़ी गैर-बराबरी इस देश को लगभग दो हिस्सों में बांट रही है, उस पर किसी की नजर नहीं है, उसकी किसी को परवाह नहीं है।
यह दरार सिर्फ आर्थिक नहीं है, उसके सामाजिक और सांप्रदायिक पहलू भी हैं। एक तरफ आरक्षण के सवाल पर उलझे हुए अगड़े और पिछड़े हैं, दूसरी तरफ मजहबी पहचान के सवाल पर अकेले पड़े मुसलमान और घायल पड़े ईसाई हैं। इसके अलावा वह विशाल दलित और आदिवासी आबादी बिल्कुल हाशिये पर है, जो हर जगह से बेदखल की जा रही है। भारतीय राजनीति इन विशाल समुदायों और इन बड़े सवालों को नज़रअंदाज़ कर रही है।
दरअसल यह भारतीय राजनीति की बदली हुई प्राधमिकता है, जो एटमी करार को ऐतिहासिक बताती है और खुद को सही साबित करने के लिए एक पुराने सामाजिक आंदोलन का मुहावरा चुराते हुए नाभिकीय अस्पृश्यता जैसा शब्द इस्तेमाल करती है। अस्पृश्यता के विरुद्ध आंदोलन आजादी के दौर का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा रहा और महात्मा गांधी ने इसे लगभग अपनी निजी मुहिम की तरह लिया। अस्पृश्यता का दंश कितना तीखा है और उसने भारतीय समाज को कैसी टूटन दी है, जो यह बात समझते हैं, उन्हें एटमी संदर्भ में भारत की अस्पृश्यता के रूपक की विडंबना शायद कुछ ज़्यादा समझ में आएगी।
दरअसल जो लोग भारत की एटमी अस्पृश्यता का सवाल उठा रहे हैं, वे एक और सच्चाई को गलत संदर्भ में पेश कर रहे हैं। भारत ने जब एटमी परीक्षण किए, तभी यह साफ था कि इस मुद्दे पर उसे अकेला रहना पड़ सकता है। इस लिहाज से यह चुना हुआ अकेलापन ज्यादा था, थोपी हुई अस्पृश्यता नहीं। भारत के पास इस अस्पृश्यता को तोड़ने के और भी तरीके थे - उन तरीकों का हमने इस्तेमाल नहीं किया, क्योंकि उन्हें अपनी आणविक और वैश्विक नीति के विरुद्ध पाया।
इस पूरे संदर्भ को भुलाकर मनमोहन सिंह ने जिस तरह एटमी करार को अमेरिकी मेहरबानी बताया है और जॉर्ज बुश जैसे विवादास्पद राष्ट्रपति को सभी भारतीयों का प्रिय साबित करने की कोशिश की है, उससे साफ है कि उनका अपना भारत है, जो महात्मा के भारत से भिन्न है। वरना महात्मा तो वे थे, जो कभी अमेरिका नहीं गए। यह तय है कि अमेरिकी करार उन्हें उस तरह नहीं लुभाता, जिस तरह आज के रहनुमाओं को लुभा रहा है। वह होते तो शायद आज के भारत की परमुखकातरता पर कहीं ज्यादा दुखी होते।

1 टिप्पणियाँ:

नपुंसक भारतीय ने कहा…

इससे बुरी बात और कोई नहीं हो सकती...
राजशाही गयी नहीं देश से...
हम तो हैं ही गुलाम गोरी चमडी के...
और भारत तो इनकी बपौती ही है!!!

पर कांग्रेस को इतनी सीटें भी नहीं मिली की सब जे जे कार करें!!!